अतीत के गांव और शहर
लोहे के औजार
ताम्रयुग की समाप्ति के साथ ही लोहे के औजारों का इस्तेमाल शुरु हो चुका था। महापाषाणीय कब्रिस्तानों से कुछ लोहे के औजार भी मिले हैं। लगभग 2500 वर्ष पहले लोहे के औजारो का इस्तेमाल बढ़ गया था।
लोहे के औजारों से लाभ: लोहा पत्थर से हल्का लेकिन मजबूत होता है। लोहे को बड़ी आसानी से मनचाहे आकार में ढ़ाला जा सकता है। पत्थर की तुलना में लोहे से बने हथियार अधिक हल्के और धारदार होते थे। लोहे ने कारीगरों का काम आसान कर दिया।
हल में लोहे के फाल के इस्तेमाल से कृषि लायक भूमि का आकार बढ़ाने में काफी मदद मिली। खेती को आसान बनाने के लिए लोहे के कई अन्य हथियार भी बनाये गये, जैसे कि हँसिया, कुल्हाड़ी और कुदाल। इससे पैदावार बढ़ाने में मदद मिली।
कृषि पर सिंचाई का प्रभाव:
लौह युग की शुरुआत में लोगों ने धान की रोपनी शुरु कर दी थी। इससे चावल की पैदावार बढ़ाने में मदद मिली। लौह युग के लिए धान की रोपनी एक महत्वपूर्ण नई खोज थी।
उसी जमाने में लोगों ने सिंचाई के लिए विशेष व्यवस्था बनानी शुरु कर दी थी। सिंचाई के लिए नहर, कुंए और तालाब बनवाये गये। इससे कृषि पैदावार बढ़ाने में काफी मदद मिली।
अब राज्यों का आकार बड़ा होने लगा था। राजा को अब लोगों से अधिक कर वसूलने की जरूरर पड़ने लगी थी। कर का सबसे बड़ा भाग किसानों द्वारा दिया जाता था। इसलिए कृषि पैदावार बढ़ाने के लिए कुछ न कुछ तरीका निकालना जरूरी था। इसलिए राजाओं ने नहरें, कुंए और तालाब आदि बनवाने की दिशा में काम किये। इससे किसानों को काफी मदद मिली। इससे राजा के कर राजस्व में भी वृद्धि हुई।
गांव का समाज
उस जमाने के गांव के सामाजिक ढ़ाँचे को समझने के लिए दो उदाहरण लेते हैं। एक उदाहरण एक दक्षिण भारतीय गांव का है तो दूसरा एक उत्तर भारतीय गांव का है।
दक्षिण भारतीय गांव
दक्षिण भारत के गांव के लोगों को निम्न वर्गों में बाँटा गया था:
- वेल्लला: बड़े भू-स्वामियों को वेल्लला कहा जाता था।
- उणवार: साधारण हलवाहे को उणवार कहा जाता था।
- कडैसियार और अदिमई: भूमिहीन मजदूरों को कडैसियार और दास को अदिमई कहते थे।
संगम साहित्य: तमिल भाषा में आज से 2300 वर्ष पहले रची गई रचनाओं को संगम साहित्य का नाम दिया गया है। इनका संकलन मदुरै में होने वाले कवि सम्मेलनों में किया जाता था, इसलिए इन्हें संगम का नाम दिया गया है। संगम और सम्मेलन एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। संगम साहित्य से उस जमाने के दक्षिण भारतीय गांवों की सामाजिक रचना का पता चलता है।
उत्तर भारतीय गांव
उत्तर भारत के गांव के लोगों को निम्न वर्गों में बाँटा गया था:
- ग्रामभोजक: गांव के प्रधान (मुखिया) को ग्रामभोजक कहते थे। ग्रामभोजक का पद आनुवंशिक था, यानि एक ही परिवार के लोग कई पीढ़ियों तक इस पद पर बने रहते थे। ग्रामभोजक ही गांव का सबसे बड़ा भूमिपति होता था। वह खेतों में काम करवाने के लिए दासों और मजदूरों को रखता था। वह बहुत ही शक्तिशाली होता था। उसे किसानों से कर वसूलने का अधिकार भी मिला हुआ था। वह जज का काम भी करता और कभी कभी पुलिस का भी।
- गृहपति: छोटे भूस्वामी गृहपति कहलाते थे।
- दास कर्मकार: भूमिहीन मजदूरों को दास कर्मकार कहते थे। ये किसानों के खेतों में काम करते थे।
गांवों में शिल्पकार भी रहते थे, जैसे कि बढ़ई, कुम्हार, बुनकर, आदि। गांव ही भोजन उत्पादन के केंद्र हुआ करते थे। नगर के लोगों के लिए अनाज और अन्य कृषि उत्पाद गांव से ही आते थे।
समृद्ध शहर
जिस स्थान में जीविका का मुख्य साधन कृषि नहीं हो उसे शहर कहते हैं। आज से 2500 वर्ष पहले भारत में कई शहर फले फूले, जैसे कि पाटलिपुत्र, वाराणसी, मथुरा, उज्जैन, मदुरै, तक्षशिला, आदि। शहर ही व्यापार और अन्य गतिविधियों के केंद्र हुआ करते थे।
मथुरा
आज से 2500 वर्ष पहले मथुरा एक महत्वपूर्ण नगर था। यह व्यापार के दो मुख्य मार्गों के जंक्शन पर था। एक रास्ता उत्तर पश्चिम मे पूर्व की ओर जाता था और दूसरा रास्ता उत्तर से दक्षिण की ओर।
मथुरा के चारों ओर किलेबंदी थी। शहर के अंदर कई मंदिर थे, जहाँ लोग इकट्ठा होते थे और खाली समय बिताया करते थे। नगर के लोगों के लिए भोजन आसपास के किसानों और गड़ेरियों द्वारा लाया जाता था। मथुरा कुछ बेहतरीन मूर्तियाँ बनाने का केंद्र भी था।
मथुरा एक महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र भी था। यह भगवान कृष्ण में भक्ति के लिए मशहूर था और आज भी है। मथुरा में बौद्ध और जैन धर्मस्थल भी थे।
मथुरा से मिले गेटों (द्वारों) और खंभों के अवशेषों पर जो अभिलेख मिले हैं, उनसे वहाँ के जीवन के बारे में बहुमूल्य जानकारी मिलती है। इन अभिलेखों में अक्सर लोगों द्वारा दिये गये दान के बारे में लिखा गया है। इन अभिलेखों से उस समय के विभिन्न पेशों के बारे में पता चलता है। दान देने वालों में कई तरह के लोग थे, जैसे कि राजा, रानी, अधिकारी, व्यापारी, सुनार, लोहार, बुनकर, टोकरी बनाने वाला, इत्र बनाने वाला, आदि।
शिल्प और शिल्पकार
मथुरा में कई तरह के शिल्प बनते थे। यह शहर मिट्टी के बहुत ही पतले और सुंदर बरतनों के लिए मशहूर था जिन्हें उत्तरी काले चमकीले पात्र कहा जाता है। ये बरतन काले रंग के और चमकदार होते थे। इस तरह के बरतन अक्सर उत्तरी भारत में मिलते थे इसलिए इनका नाम उत्तरी काले चमकीले पात्र रखा गया।
कई ऐसे शिल्प रहे होंगे जो समय की मार नहीं सह पाए होंगे। लेकिन उस समय के कई ग्रंथों से उनके बारे में पता चलता है। वाराणसी और मदुरै कपड़े के उत्पादन के महत्वपूर्ण केंद्र थे। कपड़ा उद्योग में पुरुष और महिलाएँ दोनों ही काम करते थे।
शिल्पकार और व्यापारी अपने संगठन बनाते थे। ऐसे संगठनों को श्रेणी कहते थे। श्रेणी के विभिन्न काम इस प्रकार थे:
- शिल्पकारों का प्रशिक्षण
- कच्चे माल की व्यवस्था
- तैयार माल का वितरण
व्यापारियों की श्रेणी का काम था व्यापार को सुव्यवस्थित करना। व्यापारियों की श्रेणी किसी बैंक की तरह भी काम करती थी। ऐसे बैंकों में धनी पुरुष और महिलाएँ अपना धन जमा करते थे। उस धन को व्यापार में निवेश किया जाता था और जमा करने वाले को ब्याज दिया जाता था। ब्याज का इस्तेमाल धार्मिक संस्थानों की मदद के लिए भी किया जाता था।
अरिकामेडु
अरिकामेडु आज के पुडुचेरी में पड़ता था। आज से 2200 से 1900 वर्ष पहले यह एक तटीय इलाका था जहाँ पर दूर दूर से आने वाले जहाजों का सामान उतरता था। इस पुरास्थल पर ईंट से बनी एक विशाल संरचना मिली है। इतिहासकारों का अनुमान है कि यह एक गोदाम रहा होगा। यहाँ से भूमध्यसागरीय क्षेत्र के बरतन मिले हैं, जैसे एंफोरा और लाल चमकीले बरतन जिनपर मुहर लगे हुए हैं। मुहर लगे लाल चमकीले बरतनों को एरेटाइन कहते हैं। एंफोरा एक बड़ा जार है जिसमें दो हैंडल लगे हैं। इसमें तेल या शराब रखी जाती थी। एरेंटाइन का नाम इटली के एक शहर के नाम पर पड़ा है।
इस पुरास्थल से कई स्थानीय बरतन भी मिले हैं। लेकिन स्थानीय बरतनों पर भी रोमन डिजाइन हैं। यहाँ से रोम में बने शीशे के सामान, लैंप और कीमती पत्थर भी मिले हैं। इन सबसे पता चलता है कि अरिकामेडु पर भूमध्यसागरीय क्षेत्र, खासकर रोम का कितना गहरा प्रभाव था। कई छोटे टैंक भी मिले हैं। हो सकता है कि इनका उपयोग कपड़ों की रंगाई के लिए होता था।
कुछ अन्य सबूत
मूर्ति
उस समय की कई मूर्तियों में रोजमर्रा के जीवन को दिखाया गया है। ऐसी मूर्तियों का उपयोग खंभों, रेलिंग और गेट को सजाने के लिए होता था। इन मूर्तियों से उस समय के लोगों के विभिन्न पेशों के बारे में पता चलता है।
वलय कुंआ
कई शहरों में खुदाई के दौरान बरतनों या सेरामिक छल्लों की कतारें मिली हैं। सेरामिक रिंग एक के ऊपर एक करके रखी गई थी। ऐसी संरचना को वलय कुंए (रिंग वेल) का नाम दिया गया है। इतिहासकारों का मानना है कि इनका इस्तेमाल शौचालय या नालियों के रूप में होता था। ऐसे रिंग वेल अधिकतर निजी मकानों में पाये गये हैं।
भवनों और महलों के बहुत ही कम अवशेष मिले हैं। इसके दो कारण हो सकते हैं। हो सकता है कि इतिहासकारों को अभी और काम करना बाकी हो। दूसरा कारण यह है कि ज्यादातर भवन लकड़ियों और कच्ची ईंटों से बने हुए थे। इसलिए वे समय की मार नही झेल पाये।
भरुच
यात्रियों और नाविकों द्वारा दिये गये विवरणों से इतिहासकारों को कई सुराग मिल जाते हैं। ग्रीस के एक नाविक ने भरुच के बारे में बड़ा ही रोचक विवरण दिया है। भरुच आज के गुजरात में पड़ता है। ग्रीस (यूनान) में इसे बेरिगाजा के नाम से जाना जाता था। उस नाविक के अनुसार, भरुच की खाड़ी काफी संकरी थी। भरुच की खाड़ी में जहाज चलाना बहुत कठिन था। केवल स्थानीय प्रशिक्षित मछुआरे ही जहाजों को सुरक्षित रूप से किनारे पर ले जा पाते थे। ऐसे मछुआरों को राजा बहाल करता था।
आयात और निर्यात के लिए भरुच एक महत्वपूर्ण स्थान था। आयात के मुख्य सामान थे शराब, तांबा, टिन, लेड, मूंगा, टोपाज, कपड़ा, सोना और चांदी के सिक्के। निर्यात होने वाले मुख्य सामान थे हिमालाय से आये पौधे, हाथी दांत, गोमेद, कार्नेलियन, कपास, रेशम और इत्र। व्यापारी अकसर राजा के लिए विशेष उपहार लाते थे, जैसे चांदी के बरतन, किशोर गायक, सुंदर औरतें, अच्छी शराब और उत्कृष्ट कपड़े।
विनिमय प्रणाली: विनिमय के लिए अक्सर सिक्कों का प्रयोग होता था। उस समय आघाती (पंच) सिक्कों का प्रचलन था। वस्तु विनिमय प्रणाली भी कुछ जगह इस्तेमाल होती थी। ऐसे विनिमय का एक महत्वपूर्ण माध्यम था नमक।
प्रश्न 1: खाली जगहों को भरो।
(क) तमिल में बड़े भूस्वामी को -------- कहते हैं।
(ख) ग्राम-भोजकों की जमीन पर प्राय: ------------------- द्वारा खेती की जाती थी।
(ग) तमिल में हलवाहे को ---------- कहते थे।
(घ) अधिकांश गृहपति -----------भूस्वामी होते थे।
उत्तर: (क) वेल्लला (ख) दास और मजदूर (ग) उणवार (घ) छोटे
प्रश्न 2: ग्राम भोजकों के काम बताओ। वे शक्तिशाली क्यों थे?
उत्तर: ग्राम भोजकों को राजा द्वारा किसानों से कर वसूलने की अनुमति मिली हुई थी। उन्हें कभी कभी न्यायाधीश की जिम्मेदारी सम्भालनी पड़ती थी, साथ ही कभी पुलिस का काम भी करना पड़ता था। ग्राम भोजक प्राय: गाँव का सबसे बड़ा भूस्वामी होता था। भूमिहीन स्त्री पुरूष, दास कर्मकार सभी उसकी जमीन पर काम करते थे। संपत्ति और अपनी जिम्मेदारियों के वहन के कारण वे शक्तिशाली हो गए थे।
प्रश्न 3: गाँवों और शहरों दोनों में रहने वाले शिल्पकारों की सूची बनाओ।
उत्तर: कुम्हार, बढई, लुहार, सुनार, आदि।
प्रश्न 4: सही जवाब ढ़ूँढो।
(क) वलयकूप का उपयोग
- नहाने के लिए
- कपड़े धोने के लिए
- सिचाई के लिए
- जल निकास के लिए किया जाता था।
(ख) आहत सिक्के
- सोना
- चाँदी
- टिन
- हाथी दाँत के बने होते थे।
(ग) मथुरा महत्वपूर्ण
- गाँव
- पत्तन
- धार्मिक केंद्र
- जंगल क्षेत्र था।
(घ) श्रेणी
- शासकों
- शिल्पकारों
- कृषकों
- पशुपालको का संघ होता था।
उत्तर: (क)जल निकास के लिए किया जाता था (ख)चाँदी (ग)धार्मिक केंद्र (घ)शिल्पकारो
प्रश्न 5: पृष्ठ 87 (एन सी ई आर टी पुस्तक) पर दिखाए गए लोहे के औज़ारो में कौन खेती के लिए महत्वपूर्ण होंगे? अन्य औज़ार किस काम में आते होंगे?
उत्तर: दिखाए गए लोहे के औज़ारो में हँसिया खेती के लिए इस्तेमाल होती होगी। कुल्हाड़ी से लकड़ी काटी जाती होगी। संड़सी रसोई में, और लुहार द्वारा गरम सामान को पकड़ने के लिए इस्तेमाल करते होंगे।
प्रश्न 6: अपने शहर की जल निकास व्यवस्था की तुलना उन शहरों की व्यवस्था से करो जिनके बारे में तुमने पढा है। इनमें तुम्हे क्या समानताएँ और अंतर दिखाई दिए?
उत्तर: आज के जमाने में जल निकास व्यवस्था के लिए पाईप का इस्तेमाल किया जाता है। जो धातु, प्लास्टिक, सीमेंट और पत्थरों से बनी होती है। इस अध्ययाय में वर्णित शहरों में जल निकास की व्यवस्था को वलयकूप कहते हैं। इसमें छल्लेनुमा पत्थर या पके हुए मिट्टी से बने वलय आकार को एक के उपर रखकर पाईप के रूप में सजाया गया है। इन वलयकूपों का गुसलखाने, नाली और कूड़ेदान के रूप में उपयोग किया जाता था। इसमें इसका आकार जो नलीनुमा है और इसमें उपयोग होने वाले सामान में समानताएँ है। छल्ले का उपयोग भिन्न है।
Extra Questions Answers
प्रश्न 1: लोहे का उपयोग इस महाद्वीप में कब शुरू हुआ?
उत्तर: लगभग 3000 साल पहले
प्रश्न 2: लौह युग में कृषि के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण सुधार क्या हुआ?
उत्तर: लौह युग में कृषि के क्षेत्र में नए औज़ार और रोपाई की शुरूआत हुई। साथ ही सिंचाई के लिए नहरे, कुएँ, तालाब और कृत्रिम जलाशय बनाए गए। जिससे कृषि उत्पादन बढ़ा।
प्रश्न 3: बेरिगाजा किसका यूनानी नाम है?
उत्तर: भरूच
प्रश्न 4: यूनानी नाविकों के अनुसार भरूच के बंदरगाहों से किन किन सामानों का आयात और निर्यात होता था? सूची बनाओ
उत्तर: भरूच के बंदरगाहों पर शराब, ताम्बा, टिन, सीसा, मूंगा, पोखराज, कपड़े, सोने और चाँदी के सिक्के आयातित किए जाते थे। हिमालय की जड़ी-बूटियाँ, हाथी-दाँत, गोमेद, कार्नीलियन, सूती कपड़ा, रेशम और इत्र निर्यातित किए जाते थे।
प्रश्न 5: आहत सिक्का किसे कहते हैं?
उत्तर: सिक्के धातुओं से बनाए जाते थे। ज्यादातर सिक्के सोने और चाँदी की चादरों पर ठप्पों से विभिन्न आकृतियो को आहत कर बनाए जाते थे। इसलिए इसे आहत सिक्का कहा जाता है।
प्रश्न 6: संगम साहित्य के अनुसार उस समय विनिमय के अन्य साधन क्या थे?
उत्तर: नमक
प्रश्न 7: उन नगरों के बारे में बताओ जहाँ उस समय के धार्मिक केंद्र थे।
उत्तर: मथुरा उस समय का एक महत्वपूर्ण नगर था। नगर के चारों ओर किलेबंदी कि गई थी। इसमें अनेक मंदिर थे। यह कृष्ण भक्ति का महत्वपूर्ण केंद्र था। यहाँ बौद्ध विहार और जैन मंदिर है। मथुरा में बेहतरीन मूर्तियाँ बनाई जाती थी।
प्रश्न 8: श्रेणी किसे कहते थे? इसका क्या काम था?
उत्तर: शिल्पकारों और व्यापारियों के संघ को श्रेणी कहते थे। शिल्पकारों की श्रेणियों का काम प्रशिक्षण देना, कच्चा माल उपलब्ध कराना और तैयार माल का वितरण करना था। व्यपारियों की श्रेणियों का काम बैंकों के रूप में काम करना तथा व्यपार को सुचारू रूप से चलाना था।
प्रश्न 9: रोम का रंगमहल( एम्फिथियेटर) किसने और कब बनवाया?
उत्तर: रोम का रंगमहल आगस्टस ने 2000 साल पहले बनवाया।
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