नये साम्राज्य और राज्य
गुप्त साम्राज्य
सन 320 से 550 तक भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से पर गुप्त साम्राज्य का शासन था। गुप्त साम्राज्य के शासन काल में चारों ओर खुशहाली थी। इस दौरान विज्ञान और तकनीक, कला, साहित्य, आदि के क्षेत्र में भी तरक्की हुई। इसलिए गुप्त साम्राज्य को भारत के इतिहास का स्वर्णिम युग कहा जाता है।
गुप्त साम्राज्य के महान राजाओं में चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त और चंद्र्गुप्त द्वितीय का नाम आता है। गुप्त साम्राज्य का शासन उत्तर पश्चिम से बंगाल तक फैला हुआ था। यह साम्राज्य दक्कन पठार के उत्तर तक ही सीमित था। लेकिन अपने चरम पर यह साम्राज्य भारत के पूर्वी तटों तक फैला हुआ था।
समुद्रगुप्त
समुद्रगुप्त को गुप्त साम्राज्य का सबसे महान राजा माना जाता है। कुछ इतिहासकार उसे सम्राट अशोक के बराबर मानते हैं। इतिहासकारों को उसके बारे में सिक्कों और अभिलेखों से पता चला है। इलाहाबाद में स्थित एक अशोक स्तंभ से समुद्रगुप्त के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। यह एक प्रशस्ति है जिसे हरिषेण ने एक लंबी कविता के रूप में लिखा है। हरिषेण समुद्रगुप्त के दरबार में रहने वाला कवि था।
प्रशस्ति: यह एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है किसी की प्रशंसा। उस जमाने में राजाओं की प्रशंसा में प्रशस्तियाँ लिखी जाती थीं।
अशोक स्तंभ से मिली हुई प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के बारे में निम्नलिखित जानकारी मिलती है:
- समुद्रगुप्त एक महान योद्धा था जिसने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए कई लड़ाइयाँ लड़ीं।
- वह एक सक्षम प्रशासक और एक अच्छा राजा था। वह एक संगीतकार, चित्रकार और लेखक भी था।
- अपने दरबार में समुद्रगुप्त चित्रकारों, संगीतकारों और कवियों को प्रोत्साहन देता था। समुद्रगुप्त के दरबार के एक मशहूर कवि का नाम है कालिदास। उस जमाने के प्रसिद्ध ज्योतिषशास्त्री, जिनका नाम आर्यभट्ट था, भी समुद्रगुप्त के दरबार में रहते थे।
उत्तरी भारत का एक बड़ा हिस्सा समुद्रगुप्त के सीधे नियंत्रण में था। इस भाग को आर्यावर्त के नाम से जाना जाता था। इस भूभाग में समुद्रगुप्त ने नौ राजाओं को हराकर उनके क्षेत्र को गुप्त साम्राज्य में मिला लिया था।
दक्षिणापथ में उस समय 12 राजा हुआ करते थे। उन्होने समुद्रगुप्त के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। बाद में समुद्रगुप्त ने उन्हें अपने अपने राज्य पर शासन करने की अनुमति दे दी।
पूर्वोत्तर में असम, तटीय बंगाल, नेपाल और कई गण संघों ने समुद्रगुप्त के आदेश का पालन शुरु कर दिया। इन राज्यों के राजा समुद्रगुप्त के दरबार में उपस्थित होते थे और उपहार भी लाते थे।
बाहरी क्षेत्रों के राजाओं ने भी समुद्रगुप्त का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। उन्होंने समुद्रगुप्त से अपनी बेटियों की शादी करा दी। ऐसे क्षेत्रों में शायद शक, कुषाण और श्रीलंका आते थे। इस तरह से लगभग पूरा उपमहाद्वीप समुद्रगुप्त के अधीन आ चुका था। कुछ भाग पर उसका प्रत्यक्ष रूप से शासन था जबकि कुछ पर परोक्ष रूप से।
राजाओं की बड़ी-बड़ी उपाधियाँ: इस काल में एक नई परिपाटी देखने को मिलती है। राजा ने बड़ी-बड़ी उपाधियों का उपयोग करना शुरु कर दिया, जैसे कि समुद्रगुप्त को महाराज-अधिराज कहा जाता था।
हर्षवर्धन
हर्षवर्धन ने उत्तरी भारत के एक बड़े हिस्से पर 606 से 647 ई तक शासन किया। उसकी राजधानी कन्नौज में थी। उसके दरबार के कवि वाणभट्ट ने उसकी जीवनी लिखी थी जिसका नाम है हर्षचरित। इस जीवनी से हर्षवर्धन के बारे में ढ़ेर सारी जानकारी मिलती है। श्वेन त्सांग भी हर्षवर्धन के दरबार में रहा था। श्वेन त्सांग के विवरणों से भी हमें कई जानकारियाँ मिलती हैं।
हर्षवर्धन का साम्राज्य
हर्षवर्धन के पिता का नाम था प्रभाकर वर्धन जो थानेसर (आज का हरयाणा) के राजा थे। हर्ष अपने पिता का सबसे बड़ा बेटा नही था, लेकिन अपने पिता और बड़े भाई की मृत्यु के बाद वह थानेसर का राजा बना। हर्ष के बहनोई कन्नौज के राजा थे। बंगाल के राजा ने उनकी हत्या कर दी। परिणामस्वरूप हर्षवर्धन ने कन्नौज को भी अपने अधीन कर लिया। उसके बाद उसने बंगाल पर आक्रमण कर दिया। उसने बंगाल और मगध पर जीत हासिल कर ली। लेकिन जब उसने दक्कन की तरफ बढ़ना चाहा तो पुलकेशिन द्वितीय ने उसका रास्ता रोक दिया। पुलकेशिन द्वितीय एक चालुक्य राजा था।
पल्लव
चालुक्य
पल्लव और चालुक्य राजा अक्सर आपस में लड़ते रहते थे। वे उस क्षेत्र में अपनी प्रभुता साबित करना चाहते थे। राजधानियों पर खासकर से आक्रमण होता था क्योंकि वे समृद्ध शहर थे।
पुलकेशिन द्वितीय को चालुक्य राजवंश का सबसे प्रसिद्ध राजा माना जाता है। पुलकेशिन ने हर्षवर्धण के बढ़ते कदम को भी रोक दिया था। उसकी प्रशस्ति उसके दरबारी कवि रविकीर्ति ने लिखी थी। इसमें हर्षवर्धन की पराजय का विस्तृत वर्णन है।
समय बीतने के साथ पल्लव और चालुक्य राजाओं की जगह राष्ट्रकूट और चोल राजाओं ने ले लिया।
इन राज्यों का प्रशासन:
अभी भी जमीन ही टैक्स का सबसे बड़ा स्रोत था। प्रशासन की सबसे निचली इकाई गांव थे। लेकिन कई ऐसे बदलाव हुए जिनके कारण सत्ता का समीकरण बदल चुका था।
इस समय कोई भी एक ऐसा राजा नहीं था जो पूरे उपमहाद्वीप पर शासन करने लायक शक्तिशाली हो। राजा अक्सर शक्तिशाली और प्रभावशाली लोगों को अपनी तरफ करने के प्रयास करते थे। वे अक्सर सत्ता की साझेदारी के उपाय निकाला करते थे। कई ऐसे लोग थे जो आर्थिक, सामाजिक या सैन्य शक्ति के मामले में शक्तिशाली थे। राजाओं के इन कदमों के कुछ उदाहरण नीचे दिये गये हैं।
- कुछ पदों को आनुवंशिक बना दिया गया। इसका मतलब यह हुआ कि पिता की मृत्यु के बाद उस पद को उसका बेटा संभालता था। अब हरिषेण का उदाहरण लेते हैं। अपने पिता की तरह वह भी महादंडनायक था।
- कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिसमें एक व्यक्ति कई पदों की जिम्मेदारियाँ संभालता था। फिर से हरिषेण का उदाहरण लेते हैं। वह एक कुमार आमात्य तथा संधि-विग्रहिका का पद भी संभालता था।
- कई महत्वपूर्ण लोग स्थानीय प्रशासन में अपना प्रभाव दिखाते थे। उदाहरण: नगर-श्रेष्ठि (बैंक या व्यापारियों का प्रमुख), सार्थवाह (व्यापारियों के काफिले का प्रमुख), कायस्थों (लिपिकों) का प्रधान, आदि।
इन नीतियों से राज्य पर नियंत्रण करने में कुछ हद तक सफलता मिलती थी। लेकिन जैसे ही स्थानीय क्षत्रप की ताकत बढ़ जाती थी वह अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लेता था।
सेना में बदलाव
कुछ राजा अभी भी एक सुसंगठित सेना रखते थे। लेकिन इस समय एक नई परिपाटी भी शुरु हो रही थी। कुछ सेनानायक अपनी सेना रखते थे जिसे जरूरत पड़ने पर राजा की सेवा में लगा दिया जाता था। उन्हें कोई नियमित वेतन नहीं मिलता था। लेकिन उन्हें इसके बदले में भूमिदान मिल जाता था। इसके साथ उन्हें कर वसूलने का अधिकार भी मिल जाता था। उस धन का उपयोग सैनिकों, घोड़ों और युद्ध के साजो-सामान के रखरखाव में किया जाता था। ऐसे सेनानायकों को सामंत कहा जाता था। जब कोई शासक कमजोर हो जाता था तो सामंत स्वतंत्र होने की कोशिश करता था।
दक्षिण के राज्यों में सभाएँ
ब्राह्मण भूमिपतियों के संगठन को सभा कहते थे। ऐसी सभाओं में कई उप-समितियाँ भी होती थी। अलग-अलग उपसमिति अलग-अलग मुद्दों पर काम करती थी, जैसे सिंचाई, सड़क निर्माण, कृषि प्रक्रिया, मंदिर निर्माण, आदि।
गैर-ब्राह्मण भूमिपतियों के संगठन को उर कहते थे। व्यापारियों के संगठन को नगरम कहते थे। सामान्य तौर पर ऐसे संगठनों का नियंत्रण धनी व्यापारियों या भूमिपतियों के हाथ में होता था। दक्षिण भारत में ऐसे संगठन कई सदियों तक बने रहे।
आम लोगों का जीवन
ज्यादातर लेखकों ने राजाओं की बड़ाई में कशीदे पढ़े हैं। लेकिन कुछ ने आम लोगों के बारे में भी लिखा है। कई कहानियों, कविताओं और नाटकों से हमें आम लोगों के जीवन के बारे में पता चलता है। अब राजाओं और ब्राह्मणों की भाषा संस्कृत हो गई थी। आम लोगों की भाषा प्राकृत थी।
अछूतों की स्थिति: फा शिएन ने उस समय के अछूतों की स्थिति के बारे में लिखा है। ऐसे लोगों को समाज की मुख्य धारा से अलग थलग रखा जाता था। जब भी कोई अछूत किसी गांव में प्रवेश करता था तो उसे औरों को अपनी उपस्थिति के बारे में चेताना होता था। लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए वह जमीन पर एक छड़ी को पीटता रहता था। अछूत को गांव या शहर की सीमा के बाहर रहना पड़ता था।
प्रश्न 1: सही या गलत बताओ।
(क) हरिषेण ने गौतमी पुत्र श्री सातकर्णी की प्रशंसा में प्रशस्ति लिखी।
(ख) आर्यावर्त के शासक समुद्रगुप्त के लिए भेँट लाते थे।
(ग) दक्षिणापथ में बारह शासक थे।
(घ) गुप्त शासको के नियंत्रण में दो महत्वपूर्ण केंद्र तक्षशिला और मदुरै थे।
(ङ) ऐहोल पल्लवों की राजधानी थी।
(च) दक्षिण भारत में स्थानीय सभाएँ सदियों तक काम करती रही।
उत्तर: (क) गलत (ख) गलत (ग) सही (घ) गलत (ड.) गलत (च) सही
प्रश्न 2: ऐसे तीन लेखकों के नाम लिखो जिन्होंने हर्षवर्धन के बारे में लिखा।
उत्तर: वाणभट्ट, रविकीर्ति और श्वैन त्सांग
प्रश्न 3: इस युग में सैन्य संगठन में क्या बदलाव आए?
उत्तर: इस युग में सैन्य संगठन में कई बदलाव आए। कुछ राजा अभी भी पुराने राजाओं की तरह एक सुसंगठित सेना रखते थे। इस समय कुछ ऐसे सेनानायक भी होते थे, जो आवश्यकता पड़ने पर राजा को सैनिक सहायता दिया करते थे। इन सेनानायको को कोई नियमित वेतन नहीं मिलता था। सेवा के बदले उन्हें भूमि दान में दी जाती थी। इन्हें कर वसूलने का अधिकार भी मिल जाता था। इसीसे वे युद्ध के लिए जरूरी संसाधन जुटाते थे। इन सेनानायको को सामंत कहा जाता था। जिन जगहों के शासक कमजोर होते थे, ये सामंत स्वतंत्र होने की कोशिश करते थे।
प्रश्न 4: इस काल की प्रशासनिक व्यवस्था में तुम्हें क्या क्या नई चीजें दिखती है?
उत्तर : पहले की तरह इस समय भी भूमि ही कर का सबसे महत्वपूर्ण साधन बना रहा। प्रशासन की सबसे प्राथमिक इकाई गाँव थी। लेकिन इसमें कई महत्वपूर्ण बदलाव हुए। इस समय कोई भी इतना शक्तिशाली राजा नहीं था, जो इस महाद्वीप पर सम्पूर्ण नियंत्रण रख सके। इसके लिए उन्होंने सत्ता की साझेदारी के उपाय निकाले। जिसके तहत शक्तिशाली और प्रभावशाली लोगों को अपनी ओर करने का प्रयास करने लगे।
कुछ प्रशासनिक पद आनुवांशिक बन गए अर्थात पिता की मृत्यु के बाद उस पद को पुत्र को दे दिया जाता था।
कभी कभी कई पदों को एक ही व्यक्ति सम्भालता था।
वहाँ के स्थानीय प्रशासन में प्रमुख व्यक्तियों जैसे- मुख्य बैंकर, व्यपारिक समूह के नेता, मुख्य शिल्पकार और कायस्थो(लिपिको) का बोलबाला था।
प्रश्न 5: क्या प्रशस्तियों को पढ़कर आम लोग समझ लेते होंगे? अपने उत्तर के कारण बताओ।
उत्तर: ‘प्रशस्ति’ संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है किसी की प्रशंसा। उस समय राजा की प्रशंसा में प्रशस्ति लिखा जाता था, जो संस्कृत में लिखा जाता था, और जिसे राजा और ब्राह्मण ही समझते थे। आम लोग तो प्राकृत भाषा समझते थे। इसलिए प्रशस्तियो को वे न तो पढ़ पाते थे और न समझ पाते थे।
Extra Question Answers
प्रश्न 1: गुप्त वंश की स्थापना किसने की?
उत्तर: चंद्रगुप्त ने
प्रश्न 2: मश्हूर कवि कालिदास और प्रसिद्ध ज्योतिष्शास्त्री खगोलशास्त्री आर्यभट्ट किसके दरबार में थे?
उत्तर: समुद्रगुप्त
प्रश्न 3: विक्रम संवत् की स्थापना कब और किसने की?
उत्तर: विक्रम संवत् की स्थापना 58 ईसा पूर्व में चंद्रगुप्त द्वितीय ने की।
प्रश्न 4: ‘महाराजाधिराज’ किसे कहा जाता था।
उत्तर: समुद्रगुप्त को
प्रश्न 5: हर्षवर्धन की जीवनी किसने लिखी?
उत्तर: वाणभट्ट ने हर्षचरित में उसकी जीवनी लिखी है।
प्रश्न 6: दक्कन की तरफ राज्य का विस्तार करने के क्रम हर्षवर्धन को किसने रोका?
उत्तर: चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय ने
प्रश्न 7: पल्लवों की राजधानी कहाँ थी?
उत्तर: काँचीपुरम में
प्रश्न 8: चालुक्यों की राजधानी कहाँ थी?
उत्तर: ऐहोल
प्रश्न 9: गुप्त साम्राज्य को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग क्यों कहा जाता है?
उत्तर: गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत चारों ओर खुशहाली थी। उस समय विज्ञान, तकनीक, कला और साहित्य के क्षेत्र में भी तरक्की हुई थी। इसलिए इसे स्वर्ण युग कहा जाता है।
प्रश्न 10: उस समय अछूत लोगों की क्या स्थिति थी?
उत्तर: अछूत लोगों की स्थिति दयनीय थी। इन्हें गाँव और शहरों के बाहर रहना पड़ता था। इन लोगों को शहर या बाजार में प्रवेश के पहले लोगों को आगाह करना पड़ता था। इसके लिए ये लोग लकड़ी के टुकड़े को बजाते रहते थे। जिससे लोग सतर्क होकर अपने को इनसे छू जाने से बचाते थे।
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