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व्यापारी, राजा और तीर्थयात्री /History chep 9 ✍️ AGT

व्यापारी, राजा और तीर्थयात्री


प्राचीन काल के व्यापारी

एक व्यापारी चीजों को खरीदने और बेचने का काम करता है। प्राचीन काल से ही मनुष्य व्यापार करता आ रहा है। चीजों को बेचने और खरीदने के लिए व्यापारी लंबी यात्राएँ किया करते थे। साथ में वे संस्कृति और विचारों के आदान प्रदान में भी मददगार होते थे।

रोम के साथ व्यापार संबंध: दक्षिण भारत का सोना और यहाँ के मसाले दूर दूर तक विख्यात थे। काली मिर्च इतनी कीमती होती थी कि इसे ‘काला सोना’ कहा जाता था। रोम के व्यापारी जहाजों और काफिलों में आते थे और यहाँ से काली मिर्च ले जाते थे। दक्षिण भारत से रोम के अनेक सिक्के मिले हैं, जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि भारत और रोम के बीच अच्छा खासा व्यापार होता था।

भारत से होकर प्राचीन समुद्री मार्ग

व्यापारियों ने भारत से होकर कई समुद्री मार्गों की खोज की। इनमे से कुछ मार्ग तट के साथ साथ चलते थे। कुछ मार्ग अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से होकर जाते थे। इन सागरों को पार करते वक्त व्यापारी दक्षिण-पश्चिमी मानसून की मदद लेते थे। कठिन समुद्री यात्रा को झेलने के लिए जहाजों को मजबूत बनाया जाता था।

तटीय क्षेत्रों के नये राज्य

भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिणी भाग में एक लंबी तटीय रेखा है। इस तटरेखा में कई पहाड़ियाँ, पठार और नदी घाटियाँ हैं। इस तटरेखा के आस पास व्यापार काफी फला फूला। इसलिए जो राजा या मुखिया इस तटरेखा पर नियंत्रण पा लेता था वह बहुत शक्तिशाली और धनी हो जाता था। आज से करीब 2300 वर्ष पहले दक्षिण भारत में तीन राजपरिवारों का बोलबाला था। इनके नाम थे, चोल, चेर और पाण्ड्य। संगम साहित्य में कई बार मुवेन्दार का जिक्र आया है। मुवेन्दार का मतलब होता है तीन मुखिया। इस शब्द का प्रयोग इन्हीं तीन राजवंशों के लिए किया गया है।

दक्षिण के महत्वपूर्ण व्यापार केंद्र: इनमे से हर मुखिया की सत्ता के दो केंद्र थे। इनमे से एक तटीय हिस्से में तथा दूसरा अंदरूनी हिस्से में होता था। इस तरह से दक्षिण भारत में छ: शक्तिशाली नगर थे। इनमें से सबसे अहम थे पुहार (या कावेरीपट्टनम) और मदुरै। कावेरीपट्टनम का बंदरगाह चोल के अधीन था, जबकि मदुरै में पाण्ड्य की राजधानी थी।

टैक्स: ये शक्तिशाली राजा व्यापारियों को सुरक्षा प्रदान करते थे। लेकिन बदले में वे कर नहीं वसूलते थे, बल्कि वे व्यापारियों से उपहार मांगते थे। वे अक्सर सैनिक अभियान पर निकल जाते थे और आस पास के इलाकों से उपहार वसूलते थे।

वसूले गये धन का कुछ हिस्सा राजा अपने पास रख लेता था। लेकिन इसका अधिकांश भाग अन्य लोगों में बाँट दिया जाता था, जैसे कि रिश्तेदारों, सैनिकों और कवियों में। संगम साहित्य के कई कवियों ने इन राजाओं की प्रशस्ति में कविताएँ लिखी हैं। उपहार के तौर पर कवियों को कीमती पत्थर,सोना, घोड़े, हाथी, रथ, उत्कृष्ट कपड़े, आदि मिलते थे।

सातवाहन: सातवाहन एक शक्तिशाली राजवंश था। लगभग 200 वर्ष बाद यह पश्चिम भारत में उभरा। सातवाहन राजवंश के सबसे शक्तिशाली राजा का नाम था गौतमीपुत्र श्री सातकर्णी। उसकी माता गौतमी बलश्री ने उसके बारे में अभिलेख लिखा था। इसी अभिलेख से हमें सातकर्णी के बारे में पता चलता है। सातवाहन शासकों को ‘दक्षिणापथ के स्वामी’ कहा जाता था। दक्षिणापथ का अर्थ है दक्षिण की ओर जाने वाला रास्ता। सातकर्णी ने अपनी सेनाओं को पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी इलाकों में भी भेजा।

रेशम मार्ग

रेशम बड़ा ही महीन और चमकदार होता है। इसलिए रेशम को हमेशा से उत्कृष्ट माना जाता है। रेशम की खोज सबसे पहले चीन में आज से 7000 वर्ष पहले हुई। लेकिन रेशम बनाने की जानकारी को चीन के लोगों ने गुप्त रखा। लेकिन रेशम के कपड़ों को अमीर व्यापारियों और राजाओं के लिए उपहार के रूप में दूर दूर भेजा जाता था। व्यापारी भी दूर देशों में रेशम बेचने जाया करते थे, क्योंकि रेशम की ऊँची कीमत मिल जाती थी।

रेशम के व्यापारियों को पहाड़ों और दर्रों से होकर बहुत ही दुर्गम मार्ग को पार करना होता था। इसमें हमेशा लुटेरों द्वारा लुट जाने का खतरा रहता था। रेशम के व्यापार के प्राचीन मार्ग को रेशम मार्ग या सिल्क रूट कहते हैं।

इस नक्शे में प्राचीन रेशम मार्ग को दिखाया गया है। जमीन से जाने वाला मार्ग हिमालय और हिंदुकुश पर्वतमालाओं से होकर गुजरता था। समुद्री मार्ग अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से होकर गुजरता था।

कुछ राजा रेशम मार्ग पर नियंत्रण करने की कोशिश करते थे, ताकि व्यापारियों की सुरक्षा हो सके। उससे व्यापार के फलने फूलने में मदद मिलती थी। अच्छे व्यापार से राजा को व्यापारियों से बेहतर कर और उपहार मिलने की उम्मीद बढ़ जाती थी।

कुषाण

केंद्रीय एशिया और उत्तर-पश्चिमी भारत पर कुषाण राजवंश का शासन करीब 2000 वर्ष पहले था। उस जमाने के अन्य राजाओं की तुलना में कुषाण राजाओं का रेशम मार्ग पर सबसे अच्छा नियंत्रण था। पेशावर और मथुरा उनकी सत्ता के दो अहम केंद्र थे। तक्षशिला भी इन्हीं के अधीन था। कुषाण शासन काल में रेशम मार्ग की एक शाखा केंद्रीय एशिया से लेकर सिंधु नदी के मुहाने तक जाता था। इन बंदरगाहों से रेशम को पश्चिम में रोम तक ले जाया जाता था। सोने सिक्के जारी करने वालों में कुषाणों का नाम अग्रणी राजाओं में आता है। रेशम मार्ग के व्यापारी इन्हीं सोने के सिक्कों को ले जाते थे।

बौद्ध धर्म का प्रसार

इस काल में व्यापार के साथ साथ बौद्ध धर्म का भी प्रसार हुआ। कुषाण राजाओं में सबसे प्रसिद्ध राजा का नाम था कनिष्क। उसने दुनिया के विभिन्न भागों में बौद्ध धर्म के प्रसार में काफी योगदान दिया।

कनिष्क के दरबार में एक विख्यात कवि था जिसका नाम था अश्वघोष। अश्वघोष ने बुद्धचरित की रचना की है जो बुद्ध की जीवनी है। उस जमाने में अश्वघोष के साथ साथ कई लेखकों ने संस्कृत में लिखना शुरु किया।

महायान

इस समय बौद्ध धर्म की एक नई धारा का विकास हुआ जिसका नाम है महायान। महायान के दो विशेष लक्षण नीचे दिये गये हैं।

  • पहले बुद्ध को कुछ चिह्नों या प्रतीकों द्वारा दिखाया जाता था। लेकिन महायान में बुद्ध की मूर्तियाँ भी बनने लगीं थीं। इनमें से अधिकांश मूर्तियाँ मथुरा में बनी हैं, और कुछ तक्षशिला में।
  • अब बोधिसत्व के प्रति आस्था में भी बदलाव आया। जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त कर लेता था उसे बोधिसत्व कहा जाता था। पहले एक बोधिसत्व को संसार से अलग थलग रहकर अपना पूरा समय ध्यान में बिताना होता था। अब बोधिसत्व लोगों के बीच रहकर उपदेश दे सकता था। बोधिसत्व की पूजा लोकप्रिय हो गई। यह परिपाटी केंद्रीय एशिया, चीन और बाद में कोरिया और जापान में भी फैल गई।

गुफा में विहार: इसी समय बौद्ध धर्म का प्रसार पश्चिमी और दक्षिण भारत में भी हो चुका था। पश्चिमी भारत की पहाड़ियों में , खासकर से पश्चिमी घाट में, कई गुफाएँ बनाई गईं। इन्हें भिक्खुओं के लिए बनाया गया। इन गुफाओं में विहार बनवाने के लिए कई राजाओं और रानियों ने दान दिये। कुछ विहारों का निर्माण अमीर व्यापारियों और किसानों के चंदे से भी हुआ। ये गुफाएँ अंदरूनी भागों और बंदरगाहों के बीच के रास्ते पर पड़ती थी। इसलिए व्यापारी भी यहाँ रुका करते थे।

इसी काल में बौद्ध धर्म का प्रसार भारत के दक्षिण-पूर्व में हुआ। अब बौद्ध धर्म श्रीलंका, म्यनमार, थाइलैंड तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया के अन्य भागों तक फैल गया। इन भागों में बौद्ध धर्म का थेरवाद रूप अधिक प्रचलित हुआ।

तीर्थयात्री

जो व्यक्ति धार्मिक प्रयोजन से यात्रा करता है उसे तीर्थयात्री कहते हैं। व्यापारियों के साथ कई तीर्थयात्रियों ने भी दूर दूर की यात्रा की।

चीनी तीर्थयात्री

इस समय के चीनी तीर्थयात्रियों में तीन काफी मशहूर हुए, जिनके नाम हैं फा शिएन, श्वैन त्सांग और इत्सिंग। ये सभी बौद्ध तीर्थयात्री थे।

फा शिएन करीब 1600 वर्ष पहले भारत आया था, श्वैन त्सांग 1400 वर्ष पहले और इत्सिंग उसके 50 वर्ष बाद आया था। वे बुद्ध और उनसे जुड़े स्थानों देखने और समझने के मकसद से आये थे।

इन तीर्थयात्रियों से मिले विवरणों से उस जमाने के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इनसे हमें मुश्किल रास्तों, यात्रा की तकलीफों, भारत का सामाजिक जीवन और अन्य कई बातों के बारे में पता चलता है।

उस समय नालंदा विश्वविद्यालय बहुत प्रसिद्ध था जो आज के बिहार में पड़ता था। श्वैन त्सांग ने भी इस विश्वविद्यालय के बारे में लिखा है। उसने लिखा है कि इस विश्वविद्यालय में एक से एक विद्वान रहा करते थे। विश्वविद्यालय में प्रवेश की प्रक्रिया बहुत कठिन थी। इसमें सफलता की दर 20% से भी कम थी।

भक्ति परंपरा

भक्ति परंपरा की शुरुआत तब हुई जब से हिंदू देवी देवताओं को एक नये दृष्टिकोण से देखा जाने लगा। आज हम इन देवी देवताओं के जिन रूपों को देखते हैं उनका विकास इसी भक्ति परंपरा के कारण हुआ।

एक समय आ गया था जब धर्म पर पुरोहितों का शिकंजा कस गया था। समाज में बिना मतलब के आडंबरों और कुरीतियों का बोलबाला था। धर्म को इन बीमारियों से मुक्ति दिलाने के प्रयास में भक्ति परंपरा की शुरुआत हुई।

भक्ति का आशय है कि कोई भी व्यक्ति अपने मन मुताबिक देवी या देवता को चुन सकता है। वह पूजा करने के अपने ही तरीके इजाद करने के लिए स्वतंत्र है। इसका मतलब है कि कोई भी व्यक्ति भगवान की पूजा करने के लिए किसी भी मूर्ति, पशु, पेड़, गीत या कविता का चयन कर सकता है।

भक्ति का मतलब है आराधना का तरीका महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि शुद्ध भक्ति ही महत्वपूर्ण है। यदि कोई सच्चे मन से अपने भगवान की आराधना करता है तो उसे उसका आशीर्वाद जरूर मिलता है।

कई कलाकारों ने विभिन्न देवी देवताओं के चित्र और मूर्तियाँ बनाई। भक्ति भाव प्रकट करने के लिए कवियों ने गीत लिखे। आज हम हिंदू देवी देवताओं के जिन रूपों को आसानी से पहचानते हैं वे सब इसी परंपरा की देन हैं।

इस काल में कई महान कवियों का प्रादुर्भाव हुआ, जैसे कि मीरा, कबीर, सूरदास, आदि। अब लोगों को पूजा के लिए मंदिर जाना अनिवार्य नहीं था। लोग अपने घरों में ही छोटे-छोटे मंदिर बनाकर पूजा करने लगे। आज भी आपको कई हिंदुओं के घरों में छोटे मंदिर मिल जाएंगे।

हिंदू: यह नाम सिंधु (इंडस) नदी से आया है। अरब और ईरानी लोगों ने इस नाम का प्रयोग उन लोगों के लिए किया जो सिंधु नदी के पूर्व की तरफ रहते थे। समय बीतने के साथ इस भौगोलिक क्षेत्र के लोगों के विचारों, संस्कृति और धार्मिक प्रचलनों को हिंदू के नाम से जाना जाने लगा।

Questions and answers

प्रश्न 1: निम्नलिखित के उपयुक्त जोड़े बनाओ।

कॉलम Iकॉलम II
(a) दक्षिणापथ के स्वामी(1) बुद्धचरित
(b) मुवेंदार(2) महायान बौद्ध् धर्म
(c) अश्वघोष(3) सातवाहन शासक
(d) बोधिसत्व(4) चीनी यात्री
(e) श्वैन ‌त्सांग(5) चोल, चेर, पांड्य


उत्तर: (a) 3, (b) 5, (c) 1, (d) 2, (e) 4


प्रश्न 2: राजा सिल्क रूट पर अपना नियंत्रण क्यों कायम करना चाहते थे?

उत्तर: राजा सिल्क रूट से गुजरने वाले व्यापारियों को आस पास के लोगों के द्वारा यात्रा शुल्क वसूलने और लुटेरों के आक्रमण से सुरक्षा प्रदान करते थे। इससे निश्चिंत होकर व्यपारी सिल्क रूट से सामान लाने और ले जाने लगे। इससे व्यपार में मुनाफा भी बढ़ा। इन सुविधाओं के बदले व्यपारी इन शासकों को कर शुल्क और तोहफे देते थे। इन अर्थिक लाभ के कारण कुछ शासक सिल्क रूट के बड़े बड़े हिस्सों पर अपना नियंत्रण कायम करना चाहते थे।

प्रश्न 3: व्यापार और व्यापारियों के रास्ते के बारे में जानने के लिए इतिहासकार किन किन साक्ष्यों का उपयोग करते हैं?

उत्तर: इतिहासकार व्यापार और व्यापारिक रास्ते के बारे में जानने के लिए विभिन्न साक्ष्यों का उपयोग करते हैं। वे तीर्थयात्री द्वारा लिखित किताबों का अध्ययन कर व्यापारिक रास्ते को जानने की कोशिश करते हैं। अगर कोई सामान बहुत दूर देश से लाया गया है तो इससे पता चलता है कि विश्व के दूसरे देशों के साथ भी यहाँ के व्यापारिक सम्बन्ध थे। जैसे रोम में यहाँ से मसाले और सोने पहुँचाए जाते थे। साथ ही इतिहासकार उस समय के प्रचलन में मिले सिक्कों से भी व्यापार का पता लगाते हैं।

प्रश्न 4: भक्ति की प्रमुख विशेषताएँ क्या थी?

उत्तर: भक्ति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है।

  • इसमें देवी देवताओ की पूजा की जाती थी।
  • इसमें सभी जाति, धर्म और वर्ग के लिए द्वार खुले थे।
  • इसको अपनाने वाले लोग आडंबर को छोड़ कर ईश्वर के प्रति लगन और व्यक्तिगत पूजा पर जोर देते थे।
  • इसमें अराध्य देवी देवताओं की पूजा मानव के रूप के अलावा और किसी भी रूप की जा सकती थी।

प्रश्न 5: चीनी तीर्थयात्री भारत क्यों आए। कारण बताओ।

उत्तर: व्यापारियों के साथ कुछ तीर्थयात्री भी यहाँ आते थे। उनमें से कुछ तीर्थयात्री चीन से यहाँ आए थे। वे सब बुद्ध के जीवन से जुड़ी जगहों और प्रसिद्ध मठों को देखने यहाँ आए थे।

प्रश्न 6: साधारण लोगों का भक्ति के प्रति आकर्षित होने का कौन सा कारण होता है?

उत्तर: भक्ति के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति अपने मन मुताबिक किसी भी देवी देवताओं को चुन सकता है। अब देवी देवताओं की पूजा किसी भी रूप में अपने तरीके से करने की आजादी थी। अब धर्म पर से ब्राह्मणों का वर्चस्व खत्म हो चुका था। अब आडंबर और कुरीतियों का भी कोई स्थान नहीं था। ये सभी साधारण नियम साधारण लोगों को भक्ति के प्रति आकर्षित कर रहे थे।

Extra Questions Answers

प्रश्न 1: भारत किस चीज(सामान) के व्यापार के लिए प्रसिद्ध था?

उत्तर: सोना, मसाले(काली मिर्च) और कीमती पत्थर

प्रश्न 2: चोलों का महत्वपूर्ण सत्ता केंद्र कहाँ था?

उत्तर: पुहार या कावेरीपट्टिनम

प्रश्न 3: पांड्यो की राजधानी कहाँ थी?

उत्तर: मदुरै

प्रश्न 4: सिल्क रूट किसे कहते हैं?

उत्तर: जिन मार्गों से व्यापारी सिल्क के कपड़े चीन से विश्व के अन्य जगहों पर ले जाते थे। उसे सिल्क रूट कहते हैं।

प्रश्न 5: किसके शासन काल में सिल्क रूट की एक शाखा मध्य एशिया से होकर सिंधु नदी के मुहाने के पत्तनों तक जाती थी?

उत्तर: कुषाणो के शासन काल में

प्रश्न 6: कुषाणो का सबसे प्रसिद्ध राजा कौन था?

उत्तर: कनिष्क

प्रश्न 7: भारत की यात्रा पर कौन कौन से चीनी बौद्धयात्री कब कब आए थे?

उत्तर: फा-शिएन 1600 ईस्वी पूर्व में, श्वैन-त्सांग 1400 ईस्वी पूर्व में, इत्सिंग लगभग 1350 ईस्वी पूर्व में आए थे।

प्रश्न 8: भक्ति मार्ग की चर्चा हिन्दुओं के किस पवित्र ग्रंथ में की गई है?

उत्तर: भगवद्गीता में की गई है।

प्रश्न 9: रेशम बनाने की तकनीक का सबसे पहले आविष्कार कहाँ और कब हुआ?

उत्तर: चीन में करीब 7000 साल पहले।

प्रश्न 10: बुद्धचरित के रचयिता कवि अश्वघोष किसके दरबार में रहते थे।

उत्तर: कनिष्क के दरबार में

प्रश्न 11: सातवाहनो का सबसे प्रमुख राजा कौन था? उसकी माता का क्या नाम था?

उत्तर: सातवाहनो का सबसे प्रमुख राजा सातकर्णी था। उसकी माता का नाम गौतमी बलश्री था|

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